पापमोचनी एकादशी व्रत विधि / पौराणिक व्रत कथा !
वैदिक विधान कहता है की दशमी को एकाहार , एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना चाहिए। सनातन हिन्दू पंचांग के अनुसा ,सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशी अति है , किन्तु अधिक मॉस की एकादशी को मिलकर उनकी संख्या 26 हो जाती है। प्रत्येक एकादशियो का भिन भिन अर्थ होता है है, तथा प्रत्येक एकादशी की अपनी एक एक पौराणिक कथा भी होती है। एकादशियो को असल में मोकसातेनी कहा गया गया है। भगवन श्री विष्णु जी को एकादशी तिथि अधिक प्रय मानी गई है चाहे वो कृष्ण पक्ष की हो या शुक्ल पक्ष की। इसलिए एकादशी के दिन पूजा करने वाले प्रत्येक भक्तो पर प्रभु की मार्क पर्दशनी सदा बानी रहती है तथा प्रत्येक एकादशियों में हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले प्रभु किष्ण की पूजा करते है, तथा व्रत करते है। साथ ही रात्रि में जागरण भी करते है किन्तु इन प्रत्येक एकादशियो में से एक ऐसी एकादशी भी है जिस एकादशियो का व्रत सादक उसके प्रत्येक पापो से मुक्त कर मोक्ष के द्वार खोल देती है।
अतः चैत्र मॉस के कृष्ण पक्ष की एकादशी किया जाने वाला व्रत पाप मोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी के दिन भगवन विष्णु के चतुर्भुज रूप का पूजन सम्पूर्ण विधि विधान से करने से व्रत के शुकफालो में अधिक विर्धि होती है पाप पूजनी एकादशी के माहात्म्य के पठान को पड़ने मात्र से संस्तर संकट एवं पाप नष्ट हो जाते है। प्रोरानिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र मॉस के कृष्ण पक्ष पापो को नष्ट करने वाली एकादशी मानी गई है। सव्यं श्री किष्ण जी ने इसके फल और महत्त्व को उनके पुत्र के समक्ष प्रस्तुत किया था।
पाप मोचनि एकादशी का अर्थ – पाप को नष्ट करने वाली एक दही होता है अतः पाप पूजनी एकादशी के प्रभाव से मनुष्य के प्रत्येक पाप नष्ट हो जाते है। इस एकादशी के श्रावण पाट के पाटन मात्र से एक हजार गौ दान करने का फाल प्राप्त होना है। इस व्रत को निशाट पूर्वक करने से ब्रह्महत्या करने वाले , अगम्या गमन करने वाले , स्वर्ण चुराने वाले , मद्यपान करने वाले और साथ ही भयंकर पाप भी नष्ट किए जा सकते है। तथा सवर्गलोक की प्राप्ति होती है।
पापमोचनी एकादशी का व्रत कब किया जाता है ?
पापमोचनी एकादशी होलिका दहन तथा चैत्र नवरात्रि के मध्य में आती है तथा यह एकादशी संवत वर्ष की अंतिम एकादशी है तथा युगादी से पहले अति है। सनातन हिन्दू पंचाडग के अनुसार पापमोचनी एकादशी का व्रत सम्पूर्ण उत्तरी भारत – वर्ष में पुर्णिमांत के अनुसार चैत्र मॉस के कृष्ण पक्ष के एकादशी के दिन किया जाता है। साथ ही गुजरात , महाराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में अमांत पञ्चरग के अनुसार यह व्रत फाल्गुन मॉस के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन आता है। वही , इंग्लिश कलेंडर के अनुसार यह व्रत मार्च या अप्रैल के महीने में आता है।
पापमोचनी एकादशी व्रत का महत्त्व –
पापमोचनि एकादशी का अर्थ पाप नष्ट करने वाली एकादशी होता है अतः पापमोचनि एकादशी के प्रभाव से मनुष्य के प्रत्येक पाप नष्ट हो जाते है।जैसा की इसके नाम से स्पष्ट है इस व्रत को करने से ब्रह्महत्या करने वाले , अगम्या गमन करने वाले , स्वर्ण चुराने वाले , मद्यपान करने वाले और साथ ही भयंकर पाप जैसे अनेकानेक घोर पापों के दोषों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। एकादशी नियमित व्रत रखने से मन की चंचलता समाप्त होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तिथि मानी गई है। अतः इस दिवस उपवास करने से पापो का नाश तो हटो ही है साथ में धन की प्राप्ति भी होती है। साथ ही , जातक का शरीर भी आरोग्यमय रहता है तथा मनोरोग नहीं होता। पापमोचनी एकादशी का व्रत आरोग्य , संतान प्राप्ति तथा परिच्छित के लिए भी किया जाता है। इस दिन गृहो को शांत करने के उपाय भी अत्यंत कारगर सिद्ध होते है। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या करने वाले , स्वर्ण चुराने वाले, मद्यपान करने वाले , अगम्य गमन करने वाले अदि भयंकर पाप भी नष्ट हो जाते है तथा अंत में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। पद्यपुराण उत्तराखण्ड में एकादशी के व्रत के महत्त्व को पूर्ण रूप से बताया गया है। पापमोचनी एकादशी के व्रत से जातक को प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त होती है साथ ही जातक को पूर्वजन्म से प्रारम्भ कर वर्तमान के जन्म तक प्रत्येक पापो से मुक्ति प्राप्त होती है। इस पावन व्रत का वर्णन स्कन्द पुराण में अति सुंदर रूप से वर्णित है। पापमिचनी एकादशी का व्रत सनातन धर्म मि अति उत्तम माना गया है। पापमोचनी एकादशी का व्रत रखने से जातक को अपनी समस्त इच्छाओ तथा स्वप्नों का पूर्ण करने में सहायता प्राप्त होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो जातक एकादशी का व्रत नियमित रखते है उन्हें भगवन श्री नारायण की विशेष कृपा निरंतर प्राप्त होती रही है। ” भ्रह्मांड पुराण ” में पापमोचनी एकादशी का दिन एक ऐसे व्रत के रूप में वंर्तित है की , जिस दिन व्रत रखने से समस्त दुःखो की समाप्ति होती है तथा भाग्य शीघ्र उदित हो जाती है। हिंदू धर्मानुसार इस व्रत के पुण्य से मनुष्य के प्रत्येक पाप नष्ट हो जाते है। पद्यपुराण में कहा गया है की युधिष्ठिर के पूछनेपर भगवन श्री किष्ण जी ने स्वयं बताया है की एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए अनिवार्य है। एकादशी के दिन सूर्य तथा अन्य ग्रह अपनी सिथति में परिवर्तित होते है, जिसके प्रत्येक मनुष्य की एनिर्दायो पर प्रभाव पड़ता है। इन विपरीत प्रभाव में संतुलन बनाने हेतु व्रत किया जाता है। व्रत तथा ध्यान ही मनुष्यो में संतुलित रहने का गुण विकसित करते है। पापमोचनी एकादशी के महत्व का वर्णन ” ब्रह्मवैवर्त पुराण ” में भी प्राप्त होता है , तथा इस एकादशी को मेरुपर्वत के सामान जो बड़े बड़े पाप है उनसे मुक्ति प्राप्त करने हेतु सर्वाधिक आवश्यक माना गया है। उन समस्त पाप – कर्मो को यह पापनाशिनी एकादशी एक ही उपवास में भस्म कर देता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार भगवन श्री किष्ण बताते है की जो व्यक्ति निर्जल संकल्प लेकर पापमोचनी एकादशी व्रत रखता है , उसे मोक्ष के साथ भगवन विष्णु की प्राप्ति होती है। पूर्ण श्रध्दा – भाव से यह व्रत करने से जाने – अनजाने में किये जातक के समस्त पाप क्षमा होते है , तथा उसे मुक्ति प्राप्त होते है। श्री कृष्ण जी आने बताते है की इस दिवस दान का विशेष महत्व होता है। जातक यदि अपनी इच्छा से अनाज , जूते- चप्पल , छाता , कपड़े , पशुओ सोना का दान करता है , तो इस व्रत का फल उसे पूर्णत : प्राप्त होता है। अत : पापमोचनी एकादशी व्रत के दिवस यथानसभाव दान व् दक्षिण देनी चाहिए। जो जातक पापमोचनी एकादशी का सच्ची श्रद्धा – भाव से करते है , उनके पितर नरक के दुःखो से मुर्क्त हो कर भगवन विष्णु के परम धाम अर्थात विष्णुलोक को चले जाते है। साथ ही जातक को सांसारिक जीवन में सुख शांति , ऐश्वर्य , धन – सम्पदा तथा अच्छा परिवारप्राप्त होता है। जो मनुष्य जीवन पर्यन्त एकादशी को उपवास करता है , वह मरणोपरंत वैकुण्ठ जाता है। श्री कृष्ण जी यह भी बताते है की इस व्रत के प्रभाव से जातक को मृत्यु के पश्चात नरक में जाकर यमराज के दर्शन कदापि नहीं होती , किन्तु सीधे स्वर्ग का मार्ग खुलता है। जो मनुष्य पापमोचनी एकादशी का व्रत रखता है , उसे अच्छा स्वस्थ्य , सुख – समृद्धि , सम्पति , उत्तम भुद्धि , राज्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है। विष्णु जी के भक्तो के लिए , इस एकादशी का विशेष महत्त्व है। जो जातक पापमोचनी एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु की कथा का श्रवण करता है , उसे सतो द्वीपों से युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता है। इस दिवस उपवास रखने से पुण्य फलो की प्राप्ति होती है , साथ ही व्रत के प्रभाव से जातक का शरीर भी स्वस्थ रहता है। जो व्यक्ति पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याहा या संध्या – कल में एकाहार अर्थात एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने का विधान है। एकादशी में अन्न का सेवन करने से पुण्य का नाश होता है तथा भरी दोष लगता है। एकादशी – माहात्म्य को सुनने मात्र से सहस्त्र गोदानोका पुण्यफल प्राप्त होता है। पौराणिक ग्रंथो के अनुसार एकादशी का व्रत जीवो के परम् लक्ष्य , भगवद – भर्ती को प्राप्त करने में सहायक माना गया है। अतः एकादशी का दिन प्रभु की पूर्णश्रद्धा से भक्ति काने के लिए अति शुभकारी तथा फलदायक है इस दिवस जातक अपनी इच्छाओ से मुक्त हो कर यदि शुद्ध चित से प्रभु की पूर्ण – भक्ति से सेवा करता है तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपा के पात्र बनता है पापमोचनी व्रत की कथा सुनने , सुनाने तथा पढ़ाने मात्र से 100 गयो के दान के तुल्य पुण्य – फलो की प्राप्ति होती है। अतः पापमोचनी एकादशी मुक्तिदायिनी होने के साथ ही समस्त मनोकामनाओ को पूर्ण करने वाली मणि जाती है।
पापमोचनी एकादशी व्रत पूजन सामग्री –
- भगवन के लिए पीला वस्त्र
- श्री विष्णु जी की प्रतिमा
- शालिग्राम भगवन की प्रतिमा
- पुष्प तथा पुष्पमाला नारियल तथा सुपारी
- धुप , दिप तथा घी
- प्रचामृत ( कच्चा दूध , ढही , घी , शहद तथा शक़्कर का मिश्रण )
- अक्षत
- तुलसी पत्र
- चंदन
- कलश
- प्रसाद के लिए मिठाई तथा त्रतुफल
पापोचानी एकादशी व्रत पूजन विधि –
पापमोचनी एकादशी के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन किया गया है इस व्रत में भगवन विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। एकादशी का व्रत रखने वाले भक्तो को अपना मन शांत एवं सिथर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की द्वेष – भावना या क्रोध को मन में नहीं लाना चाहिए इस दिन विशेष रूप से व्रती को बुरे कर्म करने वाले , पापी तथा दुष्ट व्यक्तियों की संगत से बचना चाहिए। परनिंदा से बचना चाहिए तथा इस दिन कम से कम बोलना चाहिए , जिस से मुख से कोई गलत बात न निकल पाये। तथापि यदि जाने – अंजाने कोई भूल हो जाए , तो उसके लिये भगवन श्री हीर से क्षमा मांगते रहना चाहिए। प्रत्येक एकादशी व्रत का विधान स्वय श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा है की एकादशी व्रतों के नियमो का पालन दशमी तिथि से ही प्रारम्भ किया जाता है , अतः दशमी तिथि के दिन में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए एवं रात्रि में भोग विलास को त्याग कर एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन तथा नारायण की छवि मन में बसाए हुए , भगवन का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए दशमी के दिन से ही , चावल , उरद , चना , मुग , जौ , मसूर , लहसुन , शराब तथा नशीली चीज का सेवन नहीं करना चाहिए। अगले दिन अर्थात एकादशी व्रत के दिन प्रातः काल सूर्योद से पूर्व उठाकर , स्नानदि से पवित्र होकर , स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए, पूजा घर को साफ करना चाहिए। इसके पश्चात आसन पर बैठकर व्रत सकल्प लेना चाहिए की ” मैं आज समस्त बोगो को त्याग कर , निराहार एकादशी का व्रत करुँगी , हे प्रभु में आपकी शरण हूँ , आप मेरी रक्षा करे। तथा मेरे समस्त पाप क्षमा करे। ” स्कल्प लेने के पश्चात कलश स्थापना की जाती है तथा उसके ऊपर भगवन श्री विष्णु जी की प्रतिमा रखी जाती है। उसके पश्चात शालिग्राम भगवन को पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए एवं पुष्प ऋतू फल का भोग लगाए तथा शालिग्राम पर तुलसी पत्र अवश्य चरण चाहिए। उसके पश्चात धुप , दिप , गंध , कमल अथवा वैजन्ती पुष्प , गागा जल , पंचामृत , नैवेद्य , मिठाई , नारियल , सुपारी , सुन्दर आवला , बेर , अनार , आम , अदि जैसे ऋतू फल से भगवन विष्णु का पूजन करने का विधान है। अतः भगवन लक्षमी नारायण जी की विधित्व पूजन आरती करनी चहिये। साथ ही धन प्राप्ति तथा आर्थिक समृद्धि के लिए पापमोचनी एकादशी के दिन माँ लक्ष्मी जी की भी पूजा करनी चाहिए पश्चात के रूप में पंचामृत का समस्त श्रद्धालुओ में वितरण करना चाहिए। इस दिन श्रीखंड चंदन अथवा सफ़ेद चन्दन या गोपी चंदन मस्तक पर लगातर पूजन करना चाहिए। व्रत के दिन अन्न वर्जित है। अतः निराहार रहे तथा सध्याकल में पूजा के पश्चात चाहे तो फलहार कर सकते है। फल तथा दूध खा कर एवं सम्पूर्ण दिवस चावल तथा अन्य अनाज न खा कर आंशिक व्रत रखा जा सकता है यदि आप किसी कारण व्रत नहीं रख सकते तो भी एकादशी के दिन चावल का प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए तथा इस दिन आप दान करके पुण्य प्राप्त कर सकते है। एकादशी के व्रत में रात्रि जागरण का अधिक महत्त्व है कहा गया है की , जो भक्तजन रात्रि में जागरण एवं भजन कीर्तन करते है उन्हें श्रेष्ठ यज्ञो से जो पुण्य प्राप्त होता उससे कई गुना अधिक पुण्य फलो की प्राप्ति होती है। अतः संभव् हो तो रात्रि में जागकर भगवन का कीर्तन अवश्य करना चाहिए। एकादशी के दिन भगवन विष्णु का संरण कर विष्णु – शासनं का पाठ करने से भगवन विष्णु की विशेष कृपा – धिष्टि प्राप्त होती है। इस दिन पापमोचनी एकादशी व्रत की कथा अवश्य पढ़नी , सुन्नी तथा सुननी चाहिए। व्रत के अगले दिन अर्थात व्दादशी तिथि पर सवेरा होने पर पुनः स्नान करने के पश्चात श्रीविष्णु भगवन पूजा तथा आरती करनी चाहिए। उसके पश्चात सही मुहूर्त में व्रत का पारण करना चाहिए , साथ ही ब्राह्मण – भोज करवाने के पश्चात योगत कर्मकाण्डी ब्राह्मण को अन्न का दान तथा यथा – संभव सोना , तिल , भूमि, गौ , फल , छाता , जनेऊ या धोती दक्षिण के रूप में देकर , उनका आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा उपसिथत श्रद्धालूओ में प्रसाद वितरित करने के पश्चात स्वय मौन रह कर , भोजन ग्रहण करना चाहिए।
पापमोचनी एकादशी व्रत का पारण ( एकादशी की व्रत के व्रत की समाप्ति करने की विधि को पारण कहते है। ) एकादशी के अगले दिन पारण किया जाता है।
ध्यान रहे –
- एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व करना अति आवश्यक है।
- यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही करना चाहिए।
- द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान माना गया है।
- एकादशी व्रत का पारण हरी वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
- व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातः कल का होता है।
- व्रत करने वाले श्रध्दलुओ को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए
- जो भक्त व्रत कर रहे है व्रत समाप्त करने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चहिए।
हरी वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती है।
- यदि जातक कुछ कारणो से प्रातः कल पारण करने में सक्षम नहीं हो , तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।
पापमोचनी एकादशी की पोरानीक कथा –
पद्मपूराण के उत्तरखंड के अनुसर धर्मराज युधिष्टिर के द्वारा भगवन श्रीकृष्ण से परम् पुणयकरी पापमोचनी एकादेशी के विषय पर पूछे जाने पर स्वय भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्टिर को पापमोचनी एकादशी की कथा सुनाई थी। उन्होंने बताया की , ” हे कुंती पुत्र ! में तुम्हें पापमोचनी एकादशी की कथा सुनता हु। पापमोचनी एकादशी की कथा को पढ़ने , सुनने अथवा सुनाने मात्र से ही समस्त प्राणी को राजसुख यज्ञ के सामान फल प्राप्त होता है। अतः तुम यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो :- ” भगवन श्री कृष्ण जी ने आगे कहा की – ” सुनो राजेंद्र ! में वह कथा सुनाता हु जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर स्वय महर्षि लोमेशजी ने कही थी। ” लोमेश जी कहने लगे की – ” हे नृपश्रेष्ठ ! प्राचीन कल में चैत्ररथ नामक वन था। अप्सराए किन्नरों के साथ विहार किया करती थी। चैत्ररथ वन से सुन्दर अन्य कोई वन न था। वह सदैव वसंत का मेला लगा रहता था, अर्थात उस इस्थान पर सदा नाना प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गंर्धव कन्याए विहार किया करती थी, कभी देवेंद्र अन्य देवताओ के साथ क्रीड़ा किया करते थे। उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में लीन रहते थे। एक दिन मंजुघोष नामक एक अप्सरा ने उनका मोहित कर उनकी निकटता का लाभ उठाने की चेष्टा की , अतः वह कुछ दुरी पर बैठे विणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी। उसी शामे शिव भक्त महर्षि मेधावी को कामदेव भी जितने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धनुष बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यंच बनाई तथा उसके नेत्रो को मंजुघोष अप्सरा का सेनापति बनया। इस प्रकार। कामदेव अपने शत्रुभक्त को जितने को तैयार हुआ। उस शामे महर्षि मेधावी भी युवसत्ना में थे तथा अत्यंत हृष्ट – पुष्ट थे। उन्होंने यज्ञोपवित तथा दण्ड़ धारण कर रहा था। वे स्वय दूसरे कामदेव के सामान प्रतीत हो रहे थे। उस मुनि को देख कर कामदेव के वश में हुई मंजुघोष ने धीरे धीरे मधुर वाणी से विण पर गायन प्रारंभ किया तो महर्षि मेधावी भी मंजुघोष के मधुर गाने पर था उसके सौनदर्य पर मोहित हो गाय। वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर उसे उसी समय अलिङ्गं करने लगी। महर्षि मेधावी उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर शिव रहय को भूल गए तथा काम के वशीभूत होकर उस अप्सरा के साथ रमण करने लगे। काम के वशीभूत होने के कारण मुनि से बोली – ” हे ऋषिवर ! अब मुझे बहुत समय होगया है ,अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए। ” अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा – ” हे मोहिनी ! संध्या को तो आयी हो , प्रातः काल होने पर चली जाना। ” ऋषि के ऐसे वचनो को सुनकर उनके साथ रमण करने लगी , इसी के साथ दोनों ने एक दूसरे के साथ साथ बहुत समय बीता दिया।
मंजुघोष ने एक दिन ऋषि से कहा – ” हे विप्र! अब आप मुझसे सर्वज्ञ जाने की आज्ञा दीजिए।”
मुनि ने इस बार भी वो ही कहा – ” हे रूपसी ! अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ है, कुछ समय और ठहरो। ”
मुनि की बात सुन अप्सरा ने बोला – ” हे ऋषिवर ! आप की रात तो बहुत लाभी। आप स्वयं ही सोचिए की मुझे आप के पास आये कितना समय हो गया है। अब और अधिक समय तक यहाँ ठहरना क्या उचित होगा? ” अप्सरा की बात सुन कर मुनि को समय का बोध हुआ वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा। जब उन्हें समय गायन की उन्हें रमण करते 57 वर्ष व्यतीत हो चुके है उस अप्सरा को वह कल का रूप समझने लगे। इतना शामे भोग विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें भयकर क्रोध आया। अब वह भयकर क्रोध में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तसफ भृकुटि तानकर देखने लगे। क्रोध से उनके अधर काँपने लगे तथा इन्दिर्य बेकाबू होना लगी। क्रोध से धारधारते स्वर में मुंशी में उस अप्सरा से कहाँ – ” मेने तप को नष्ट करने वाले दुष्ट ! तू महा पापनी तथा प्रचंड दुराचरणी है, मुझ पर धिक्कार है ! अब तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा। ” मुनि के क्रोड़युक्त श्राप से वह अप्सरा पिशचिनी बन गए। यह देख वह व्यथित होकर बोली – ” हे ऋषिवर ! अब मुझ पर क्रोध त्यागकर प्रसन्न होइए तथा कृपया करके बताइये की इस दुखद श्राप का निवारण किस प्रकार होगा ? विव्दानों ने कहा है , साधुओ की संगत अच्छा फल प्रदान करने वाली होती है तथा आप के साथ मेरे कई वर्ष व्यतीत हुए है , अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइइ , अन्यथा लोग कहेगे की एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मंजुघोष को पिशाचनी बनना पढ़ा। मंजुघोष की बात सुन कर मुनि को अपने क्रोध पर अत्यंत ग्लानि हुई साथ ही अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ , अतः पिशाचनी बानी मंजुघोष से मुनि ने कहा – ” तूने मेरा भयकर अनिष्ट किया है, किन्तु दयावश मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाए बतलाता हु। चैत्र मॉस के कृष्ण पक्ष की एकदेशी है , उसका नाम पापमोचनी है। उस एकदेशी का व्रत करने से तुझे पिशाचनी की देह से मुक्ति हो जाएगी।” ऐसा कहकर मुनि ने उसको व्रत का सब विधान समझा दिया।
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