Shlok
स्लोक
आलस्य कुतो विघा, अविघस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कत:सुखम् ।।
अर्थात: -आलसी को विघा कँहा, अनपढ मूर्ख को धन कँहा,
निर्धन को मित्र कँहा और अमित्र को सुख कँहा ।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्यो महान् रिपु: ।
नास्त्युघमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थात: -मनुष्यों के शरीर मे रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बडा शत्रु होता हैं।
परिश्रम जैसा दूसरा कोई अन्य मित्र नहीं होता व्योकि परिश्रम करने वाला कभी दु:खी नहीं होता ।
यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परूषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।
अर्थात् : -जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार बिना पुरूषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता हैं।
बलवानप्यशक्तो$सौ धनवानपि निर्धन: ।
क्षुतवानपि मूखो$सौ यो धर्मविमुखो जन: ।।
अर्थात्:- जो व्यक्ति धर्म(कर्तव्य) से विमुख हैं। वह (शक्ति) बलवान होकर भी असर्थ धनवान् होकर भी निर्धन
तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता हैं।
जाड्यं धियो हरित सिंचित वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोत,
चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति,
सत्संगति: कथं किं न करोति पुंसाम् ।।
अर्थात् :-अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता हैं। वाणी मे सत्य का संचार करता हैं।
मान और उन्नति को बढाता हैं और पाप से मुक्त करता हैं । चित को प्रसन्न करता हैं।
और (हमारी) किर्ति को सभी दिशाओं मे फैलाता हैं। (आप ही) बोलो कि सत्संगति: मनुष्यों का कौनसा भला नहीं करती ।
चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा ।
चन्द्रचन्द्रयोर्मध्ये शीतला साधुसंगत: ।।
अर्थात्: – संसार मे चन्दन को शीतल माना जाता हैं। लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी
शीतल होता हैं। अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना मे अधिक
शीतलता देने वाला होता हैं।
अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
अर्थात्:- यह मेरा है।, यह उसका हैं, ऐसी सोच संकुचित चित वाले व्यक्तियों की होती हैं।,
इसके विपरीत उदार चरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती
ही एक परिवार जैसी होती हैं।