Somvati Amyasya Vrath katha ! (In Hindi)
सोमवती व्रत की पूजन विधि – सोमवती अमावस्या को पीपल की जड़ में लक्ष्मी नारायण का पूजन किया जाता है। व्रत का संकल्प करके पीपल की जड़ में लक्ष्मी नारायण की स्थापन करके तथा जल चढ़ा कर पीपल की जड़ में सूत लपेट दे। भगवन का ध्यान करके पत्र , पुष्प , फल , मिष्ठान , वस्त्र तथा गन्ध अदि अर्पण करे , फिर हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक प्राथना करके आरती करे तथा पीपल की 108 प्रढ़क्षिण करें। ऐसा करने से भगवन पुत्र , पौत्र , धन – धान्य तथा सभी मनोवांछित फल व्रती को प्रढ़ान करते है।
सोमवती अमावस्या व्रत कथा प्रारंभ – सूत जी बोले की शर-शय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह जी के समीप जाकर धर्मात्मा युधिष्ठिर प्रणाक करके हितकारी वचन बोले। युधिष्ठिर बोले की भीमसेन के कोप से मुख्य – मुख्य कौरव मारे गए और अब सब राजाओ को युद्ध में अर्जुन ने मर डाला। दुर्योधन की बुरी सलाह से मेरे कुल का नाश हो गया। अब बालक , वृध्द और दुःखी मनुष्यो को छोड़कर कोई राजा रह ही नहीं गया। भरत वंश में केवल हम पांच भाई ही शेष है , यद्यपि हमारा अब एकछत्र राज्य है किन्तु मुझे यह अच्छा नहीं लगता। अपना जीवन भी मुझे अच्छा नहीं लगता , भोग में कुछ प्रीति नहीं है। वंश का नाश देखकर मेरे ह्रदय में दिन – रात सन्ताप रहता है। उत्तरा के गर्भ का बालक भी अश्वत्थामा के अस्त्र से जल गया , इस कारण इस पिण्ड – विच्छेद को देखकर मुझे दुगुना दुःख हो रहा है। हे पितामह ! अब आप ही शीघ्र ही चिंरजीवी संतति प्राप्त हो ? भीष्म जी बोले – हे राजन ! सुनो , मै तुम्हे व्रतों में एक उत्तम व्रत बतलाता हु जिसके करने मात्र से चिरंजीवी संतान की प्राप्ति होगी।
हे युधिष्ठिर! जब सोमवती अमावस्या हो उस दिन आश्वस्थ अर्थात पीपल के समीप जाकर जनार्दन का पूजन करें और उस वृक्ष की 108 प्रदक्षीण करे और उतने ही रत्न , धातु और फल ले लें अर्थात 108 रत्न , सोना – चांदी के आभूषण या बर्तन , फल और लड्डू , पेड़े इत्यादि मिठाई ले और प्रत्येक प्रदक्षिण में 108 में से एक एक वस्तु लेकर प्रदक्षिण पूरी करके अलग रखते जाएं। इस प्रकार 108 प्रदक्षिण में अपनी शक्ति के अनुसार 108 वस्तुए देकर व्रत समाप्त करे। हे राजन ! यह व्रतराज अर्थात विष्णु भगवान को प्रीतिकर होने से शुभ फल देने वाला है।
हे प्राज्ञे ! तुम उतरा से इस व्रत को कराओ , उसका गर्भ जीवित हो जायगा और तीनो लोको में विख्यात गुणवान पुत्र होगा। पितामह के वचन सुनकर युधिष्ठिर पुन: बोले की उस व्रतराज को विस्तार के साथ कहिए। हे विभो ! इस व्रत मृत्युलोक में प्रथम किसने प्रकाशित किया और फिर इसको किसने किया ? भीष्म जी बोले की एक सर्वविख्यात कांची नाम की महापुरी है जो चांदी के पर्वत जैसे उंचे – उंचे बड़े – बड़े विशाल महलोंसे सुशोभित है तथा ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र सभी अपने – अपने कामो में लगे रहते है। वह नगरी रूप और चतुरी में प्रवीण वेश्याओ से सुशोभित है।
जैसी की कुबेर की अलकापुरी या इंद्र की अमरावती है। अगिन की अत्यंत तेजोवती महापुरी के समान वह रत्नो से भरपूर है। वहां का बड़ा पराक्रमी रत्नसेन नामक राजा था। उस राज्य में देवस्वामी नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी रूपलावण्य वती धनवती नाम की सुंदर स्री थी। उस उस लक्ष्मीस्वरूप स्त्री का जैसा नाम था, वैसा ही उसमे गुण भी था था उसके सात गुणवान पुत्र थे। हे राजन ! उसके गुणवती नाम की एक सुन्दर कन्या भी थी। वे सतो पुत्र अपनी अपनी स्त्रियो के साथ सुखपूर्वक विहार करते थे। किन्तु कन्या भी अपने तुल्य पति की चाहना क्र रही थी , इसी बिच में कोई बाह्माण भिक्षा के लिए उपसिथत हुआ। वह ब्राह्मण अपने तेज से अगिन के समान प्रदीप्तमान था , उसने व्दार पर आकर आशीर्वाद दिया। देवस्वामी की सातो पुत्रवधुए शीघ्र ही उठ खड़ी हुई और प्रत्येक ने अलग – अलग उस ब्राह्मण को भिक्षा दी। उरने उन सबके सौभाग्य , सम्पति के साथ अचल सुहाग का आशीर्वाद दिया। पीछे माता ने गुणवती को भी भिक्षा देने के लिए भेजा। उस कन्या ने भी ब्राह्मण ने उसे आशीर्वाद को सुनकर गुणवती घर के अंदर चली गई और उस ब्राह्मण ने जो आशीर्वाद दिया था उसे माता को सुनाया। उस आशीर्वाद का सुनकर माता धर्मवती पुत्री का हाथ पकड़कर व्दार पर आई और उस ब्राह्मण को पुत्री से पून: प्रणाम करवाया। किन्तु ब्राह्मण ने फिर वही आशीर्वाद देकर उन्हें संतोष प्रदान किया। आशीर्वाद सुनकर धनवती फिर चिन्तित होकर बोली – हे भगवन ! आप प्रसन्न होकर मेरे बात सुनिए। अपने मेरी पुत्र – वधुओ को प्रणाम करने पर उन्हें अच्छे अच्छे आशीर्वाद दिए। वे आशीर्वाद अचल सुहाग , पुत्र , सुख और सौभाग्य को देने वाले थे, किन्तु इस पुत्री के प्रणाम करने पर अपने उसे विपरीत आशिर्वात दिया। हे भदे ! तू धर्मवती हो और यही बार – बार आशीर्वाद दिया। हे विप्रषि , इस आशीर्वाद के प्रयोग करने का कारण यथार्थ से कहिए।
ब्राह्मण बोला – हे धनवती ! तू धन्य है। तेरा उत्तर चरित्र भू – मण्डल में प्रशिद्ध है। मैने तेरी पुत्री को यथायोग्य ही आशीर्वाद दिया है। यह विवाह के समय सप्तपदी के बिच में ही विधवा हो जाएगी। इसलिए हे शुभे ! इसे धर्माचरण ही करना चाहिए। इसी कारण मैने इसे यह आशीर्वाद दिया की हे शुभे तू धर्मवती हो। यह सुनकर धनवती चिंता से व्याकुल हो गई और बारम्बार प्रणाम कर दीन वचन में बोली – हे विप्रेंद ! यदि आप इसका कोई उपाय जानने है तो आप दया करके शीघ्र कहिए। ब्राह्मण बोला की हे सुंदरी , यदि तेरे घर सोमा आ जाए तो उसके पूजन मात्र से इसका वैधव्य मिट सकता है।
धनवती बोली – आपकी बताई हुई सोम कौन है , उसकी क्या जाती है और कहां रहती है ? जिसकी बताई हुई सोमा से ही वैधव्य का नाश हो जाएगा। हे महाभागे! आप उसे कहिए , मैं समय बढ़ाना चाहती। ब्राह्मण बोला की वह सोमा जाती की धोबन है उसका निवास स्थान सिंहलवदीप में है। यदि वह तेरे घर में आ जाए तो वैधव्य का नाश हो जाएगा। ऐसा बोल कर ब्राह्मण दूसरे स्थान पर भिक्षा लेने चला गया। तब धनवती भी अपने पुत्रो से बोली की हे पुत्रो ! तुम्हारी सोमा के आगमन मात्र से ही इसका वैधव्य मिट जाएगा।
अस्तु ! जिस पुत्र में पिता की भांति और माता के वचनो का गौरव हो वह अपनी बहन को साथ ली जाकर और सोम को शीघ्र ही ली आए। सबसे बड़ा पुत्र बोला – हे माता ! हम लोगो को विदित है की तुम्हारा मन पुत्री के स्नेह में बहुत आशक्त हो गया है। इसी कारण पुत्रो का दूसरे दुर्गम देश में भेज रही हो , जिसके बिच में चार सौ कोस के विस्तर का दुस्तर समुद्र है। हममे वहां जाने की शक्ति नहीं है। हम वहां जाकर दुःख नहीं सह सकते। देवस्वामी बोले – यद्यपि मेरे सात पुत्र है तो भी मैं पुत्रहीन हू। मैं स्वय सिहलवदीप जाउंगी और पुत्री के वैधव्य को नाश करने वाली उस सोमा को लाऊगा।
इस प्रकार देवस्वामी क्रोधित होकर कह ही रहे थे की उसी समय छोटे पुत्र शिव स्वामी में प्रतिज्ञापूर्वक कहा की ही तात ! आप क्रोध के वशीभूत ऐसा न कहो। मेरे सिवा कूँ सिंहलवदीप जाने में सनर्थ हो सकता है ? मैं बहन को लेकर सिंहलवदीप जाउगा। ऐसा कहकर वह सहसा उठ खड़ा हुआ और प्रणम करके बहन को साथ लेकर आनंदपूर्वक सिंहलवदीप को चल दिया। वह ब्राह्मण पुत्र कुछ ही दिनों में चलकर समुद्र के किनारे पहुंच गया वह समुद्र पार करने का प्रयत्न करने लगा। उसने वहा एक अत्यन्त विशाल वट वृक्ष देखा जिसके कोटर में गिद्धराज के बच्चे सुखपूर्वक बैठे हुए थे। उस वृक्ष के नीचे बैठकर उन दोनों बहन – भाई ने वह दिन बिताया।
संध्या समय वह गिद्ध बच्चो के लिए भोजन लेकर आया और पकड़ कर भोजन करने लगा। किन्तु उसके बच्चो ने गिध्द से भोजन लेकर निचे गिरा दिया , तब चिंता से व्याकुल मन वाले गिद्ध ने उन बच्चो से पूछा की हे पुत्रो ! तुम भूखे होकर भी भोजन क्यों नहीं कर रहे ? मैं तुम्हारे योगय यह कोमल मॉस लाया हु। बालक बोलते हे तात ! इस वृक्ष के निचे दो मनुष्य बैठे हुए है , उनके स्वीकार किए बिना हम भोजन कैसे कर ले। ऐसा सुनकर वह गिद्ध दयाद उनके समीप आकर यह वचन बोला कि हे द्विज आप दोनों का जो भी कार्य हो सो मुझे प्रकट करो। हे विप्रवर , मै उसे सब प्रकार से करुना किन्तु आप लोग भोजन कर ले।
ब्राह्मण बोला की हम सिंहलवदीप जाने के लिए समुद्र पार करना चाहते है, हमें अपनी बहन का वैधव्य नाश करने के लिए सोमा को लाने की इच्छा है गिद्ध बोला की की मैं प्रात : काल ही तुमे समुद्र पार उतर दुगा और सिंहलवदीप में सुमा का घर भी दिखला दुगा। इसके प्रश्चत रात्रि व्यतीत होने पर सूर्यदेव के उदय होते ही गिद्धराज ने उन दोनों बहन भाई को समुद्र पार उतर दिया। वे सिंहलवदीप में आकर सोमा के घर के समीप ही ठहर गए , इसके पश्चात वे दोनों प्रात : काल के समय कोमा को साफ कर उसे प्रतिदिन लिप करके सुंदर बना देते।
इस प्रकार यह करते करते वहां उन्हें पूरा एक व्यतीत हो जाया , इस प्रकार की स्वच्छता देखकर सुमा ने विस्मित होकर अपने पुत्रो तथा बहुओ से पूछा की यहां यह झाढ़ू लगाकर कौन लीपा करता है मुझसे कहो। उन सभी ने एक ही साथ कहा की यह हमारा किया नहीं है। इसके पश्चात एक दिन वह धोबीन रत्री को छिपकर बैठ गई। उसने देखा की ब्राह्मण की कन्या घर के आंगन में झाड़ू लगा रही है और पवित्र व्रती भाई उस आंगन को लिप रहा है। सोमा ने उन दोनों के पास जाकर पूछा की तुम दोनों कोन हो ?
मुझसे कहो ! उन्होंने सोमा से कहा की हम ब्राह्मण की सन्तान है। सोमा बोली की घर में ब्राह्मण बुहारी लगते है। इससे तो मैं जल गई, नष्ट हो गई , इसमें कोई संदेह नहीं है की यह जो मेरी गुणवती नाम्नी देवी स्वरूप मेरी बहन है, सो उसका सप्तपति के बिच में वैधव्य योग है और तुम्हारे समीप सहने मात्र से वैधव्य योग का नाश हो सकता है , इसी कारण से मै बहन सहित यह दार कर्म करता हु। सोमा ने कहा अब आगे ऐसा न करना। मैं तुम्हारे आज्ञा से ही चली चलूगी।
ऐसा बोल कर सोमा घर में जाकर सबसे बोलने लगी की मैं इन के साथ जा रही हु, जब तक में लोट कर न आ जाउ तबतक मेरा राजे में मारा व्यक्तिव बचाकर रखा। किसी के कहने से भी किसी को भी कभी जलने न देना। यह आज्ञा पुत्र – वधुओ के स्वीकार करने से सोमा महसूर के किनारे आई और क्षणमात्र में उन दोनों भाई बहनो को पार हो गई। उसके प्रभाव से निमेष मात्र में ही सब कांची पूर आ गए। धनवती ने अपनी पप्रसन्नसा में धनवती की पूजा की। फिर इसी बिच में शिव स्वामी देश देशंतर से अपनी बहन के समक्ष वर लाने के लिए उज्जयनी पहुंचा और वहां से पंडित देव शर्म के पुत्र रूद को वर दान के रूप में ले आया जो की उनकी बहन के समान ही गुणवान था। तत्प्रश्चात उस धोबिन सोभा ने उनका विवाह कर दिया। इसके परशचत सप्तपढ़ी के बिच में रूद्र गया, उसे मर्त देखकर सब रोने लगे मगर सोभा चुप रही।
सोमा ने वहां सब लोगो को बहुत रोते – पीटते देखकर गुणवती को शीघ्र ही व्रत राज के प्रभाव से होने वाला मृत्यु विनाशक पुण्य विधिपूर्वक स्नाकल्प करके दे दिया। रुद शर्मा उस व्रतराज प्रभाव से जीवित हो गया होर सोये हुए की भांति सहसा उठाकर बैठ गया। इस प्रकार से विवाह कार्य से विरत हो और व्रतरज को बतलाकर सोमा धोबिन मृत ब्राह्मण को जीवित करके प्रसन्नता से भरी हुई अपने घर चली गई ।