नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी

23 जनवरी, 1897 में कटक (ओडिशा में स्थित) के मशहूर वकील जानकीनाथ बोस के घर में एक लड़का हुआ। उस लड़के को आज हम नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जानते है। नेताजी की मां का नाम प्रभावती था। नेताजी एक समृद्ध परिवार में जन्मे, जिस वजह से उनकी शिक्षा बहुत ही अच्छे से चली और कोई रूकावट नहीं आई। नेताजी ने अपनी शुरुआती पढाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई और नेताजी ने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री ली और भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए 1919 इंग्लैंड कैंब्रिज विश्वद्यालय में पढ़ने के लिए चले गए। जब वह इंग्लैंड से भारत 1920 में आए तो उन्होंने 1920 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए आवेदन किया, परीक्षा पास की और चौथा स्थान पाया। जब 13 अप्रैल, 1920 को जलियावाला नरसंघार हुआ तो नेताजी बहुत उदास हुए और अगले ही वर्ष उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। जिसके बाद नेताजी जी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए और यही से नेताजी ने देश को आज़ाद कराने की मुहीम शुरू कर दी।

 

 

भारतीय प्रशासनिक सेवा को छोड़ने के बाद नेताजी – महात्मा गाँधी जी से मिलें पर नेताजी गाँधी जी के अहिंसा वाले विचारों से सहमत नहीं थे। दोनों ही व्यक्ति के विचार और रास्ता बहुत ही अलग था पर मंज़िल एक ही थी। मोहनदास करमचंद गाँधी को महात्मा की सबसे पहली उपाधि नेताजी ने ही दी थी। नेताजी इसके बीच कांग्रेस में शामिल हो गए। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ जिसकी अध्यक्षता मोती लाल नेहरू ने की। इस अधिवेशन गाँधी जी ने पूर्ण स्वराज की मांग में कोई रूची नहीं ली परंतु नेताजी और नेहरू दोनों ही पूर्ण स्वराज की मांग पर अड़े थे। जिसकी वजह से यह तह किया गया की अंग्रेज़ों को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए एक वर्ष का और मौका मिलेगा। इसके 2 वर्ष बाद कोंग्रेस का एक और वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने की थी। यह वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ था। इस अधिवेशन में यह तय हुआ की भारत का स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी को तय हुआ, इसी दिन भारत को आज़ादी मिले। इसीलिए 26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में रवि नदी के किनारे सुभाष चंद्र ने झंडा फहराया और आज़ादी के लिए एक संग्राम शुरू कर दिया। तभी पुलिस ने वहां हमला कर दिया और नेताजी घायल कर दिया और जेल बंद कर दिया। इसी बीच गाँधी जी और अंग्रेजों के बीच एक समझौता हुआ और उसके तहत सभी कैदी नेताजी सहित जेल जी छूट गए।

परंतु इस रिहाई में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहाई नहीं मिली और उन्हें फांसी दे दी गई जिससे नेताजी आहत हुए। कुछ समय बाद नेताजी को फिर से जेल भेज दिया गया, इस बार नेताजी करीब एक वर्ष के लिए जेल में रहे और ख़राब स्वस्थ की वजह से उन्हें जेल से छोड़ कर देश निकला दे दिया गया और यूरोप भेज दिया गया। नेताजी ने यूरोप में नेताजी ने कई सारे सांस्कृतिक आयोजन किये और भारत की और आकर्षित किया। नेताजी का भारत में प्रवेश निषेध था पर वह भारत आए और गिरफ्तार भी हुए और करीब 1 वर्ष तक जेल में बंद रहे। कुछ समय बाद, 1937 में चुनाव हुआ और 7 राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी जिससे सुभाष चंद्र को रिहाई मिल गई। अगले ही वर्ष कांग्रेस के हरीपुर वार्षिक अधिवेशन में नेताजी को कांग्रेस का अध्यक्ष पद मिला। अगले वर्ष यानी 1939 फिर से कांग्रेस पद का चुनाव हुआ और  इस बार नेताजी के सामने पट्टाभि सीतारमैया पर फिर नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और पट्टाभि सीतारमैया। पट्टाभि सीतारमैया गाँधी जी के बहुत करीबी थे और पट्टाभि सीतारमैया को गाँधी जी का पूर्ण समर्थन था और नेताजी का अध्यक्ष बनाना गाँधी जी को अपने हार के समान लगा। गाँधी जी सुभाष के तौर – तरीकों से सहमत नहीं थे और इस वजह से वह कांग्रेस को छोड़ने का ऐलान कर सकते थे जिस वजह से कांग्रेस कार्यकारणी के 14 में से 12 सदस्यों ने अपना इस्तीफा दे दिया। फिर 1939 त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन हुआ, जिसमे नेताजी बीमारी की वजह से स्ट्रेचर पर आए और गाँधी जी इस अधिवेशन में शामिल नहीं हुए। किसी ने भी नेताजी की बात नहीं सुनी और जिस वजह से नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

 

इन सब से आहत हो कर नेताजी ने कांग्रेस में ही एक और पार्टी का गठन कर लिया जिसका नाम फॉरवर्ड ब्लॉक रखा। फॉरवर्ड ब्लॉक की वजह से को कांग्रेस से बेदखल कर दिया गया और फॉरवर्ड ब्लॉक स्वतंत्र पार्टी के रूप में बन गई। फॉरवर्ड ब्लॉक बहुत तेजी से बड़ा बनता गया, जिस फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी नेताओ को कैद कर लिया गया। नेताजी कैसे भी जेल से निकलना चाहते थे, जिसके लिए नेताजी ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया और हालत बिगड़ने पर अंग्रेज़ो ने  नेताजी को छोड़ दिया और घर में ही बंद रहने का आदेश दे दिया गया।

 

इसके कुछ समय बाद जनवरी, 1941 में नेताजी रात के अंधेरे में घर से बाहर भागने में कामयाब हो गया और देश से बहार निकल गए और अफ़ग़ानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुँच गए। जर्मनी में नेताजी ने जर्मनी और जापान से अंग्रेज़ो को निकालने के लिए मदद मांगी और दोनों ही देशो ने इस मदद को समझा और बात मान ली। इसके एक बाद नेताजी ने रेडियो बर्लिन पर एक भाषण दिया और भारत के लोगों में जोश भर दिया। 1943 में नेताजी सिंगापूर से होते हुए पूर्वी एशिया आएं और आज़ाद हिन्द होज़ को अपने नियंत्रण में लिया और एक नारा दिया, जो था ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’. इसके बाद आज़ाद हिन्द फौज दिल्ली की ओर बढ़ने को निकल गई और जापानी सेना के सहयोग से अंग्रेज़ों की सेना पर हमला शुरु कर दिया। हिन्द फौज और जापानी फौज की संयुक्त टुकड़ी ने अंडमान और निकोबार द्वीप पर कब्ज़ा कर लिया और शहीद और स्वराज द्वीप का नाम दे दिया गया। अब दोनों फौज ने अम्फाल और कोहिमा पर कूच किया परन्तु यहाँ अंग्रेज़ों ने संयुक्त सेना को पीछे खदेड़ दिया। इसके कुछ समय बाद नेताजी ने 6 जुलाई,1944 को रेडियो पर अपने सभी सहायता वाले कारण बताएं जिससे जापान की सहायता लेने का भी कारन बताया और अपने भाषण में नेताजी ने गाँधी जी को राष्ट्रीय पिता की उपाधि दी।

 

कुछ समय बाद 18 जनवरी, 1945 में एक खबर आई, जिसके बाद सब सहम गए। इस खबर में एक प्लान क्रैश का ज़िकर था, जिसमे नेताजी भी सवार थे और इस हादसे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई थी। परन्तु आज भी इस घटना का कोई असल साबुत या फिर नेताजी का शव दुनिया के सामने नहीं लाया गया। नेताजी के मृत्यु को आज भी रहस्यमय और विवादित माना गया है। यह घटना ताइवान में हुई थी।